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होली को हो ली ना बनायें- Holi Contest

जावेदनामा
जावेदनामा
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मुझे अक्सर याद आती है वो बचपन की होली….जिसकी आमद का एहसास एक हफ्ते पहले ही हो जाया करता था..हर तरफ एक अलग सा खुमार…बसंत का सन्देश वाहक ये पर्व राग और रंग में झूम उठता था…गोरखपुर की हर छोटी छोटी सकरी गलियों का माहौल बदल जाता था और फिर होलिका दहन की तय्यारी…लकडियां, घास-फूस, गोबर के बुरकलों का बडा सा ढेर लगाकर पूजा पाठके बाद सम्मत (होलिका) जलाया जाता था…ना किसी मज़हब की पाबन्दी ना ना कोई दिल में द्वेष…बस एक ही वेष…रंग गुलाल.

वक़्त बदला,हालत बदले…और होली ने भी रूप बदल लिया…खो गई कहीं होली…खोती भी भला क्यूँ नही?रंग लगाने पर गोलियां चलने लगी…झगड़े होने लगे…मज़हब की पाबंदिया देखने लगी…किसी पर भी रंग डालने से पहले सोचा जाने लगा…मुझे याद है गोरखपुर में किसी ने एक दरोगा पर रंग दाल दिया था और फिर दरोगा ने गोली मार दी उस इन्सान को…बस फिर उसके बाद हर होली पर प्रसाशन लेक्चर देने लगा…पुलिस गाली मोहल्ले में पहरे देने लगी..उफ्फ्फ

फिर मुंबई आ गया मैं…यहाँ होली का मायने ही कुछ और हैं,आपस में मनाओ…खाओ पियो और १२ बजे के पहले सब कुछ ख़तम करो…यहाँ पडोसी के साथ होली खेलने की भी फुर्सत नही या यूँ कह लें की जरुरत ही महसूस नही होती है…जब की होली का संदेशा है सौहार्द और भाईचारा…यहाँ होली तो बस हो ली बन कर रह गई है…यानि एक पर्व है एक प्रथा है जिसे मानना है तो मना लो फ़र्ज़ निभा लो और फिर कह दो भाई इस साल होली पूरी हो गई यानि हो ली..

मैं आज तक नही समझ सका की ये जो किसी भी धर्म के त्यौहार है उनका संदेशा है आपसी भाईचारगी प्यार और अपनापन जिवंत करना फिर ये सिर्फ फ़र्ज़ बन कर सिमटते क्यों जा रहे है? हम जैसे जैसे सिख्षित होते जा रहे हैं हमारी मानसिकता सिमटती क्यों जा रही है…हमारा दिल दिमाग बन्द क्यों होता जा रहा है?

मैं जानता हूँ मैं जो लिख रहा हूँ उसे पढ़ कर कोई जगाने वाला नही कोई इस पर विचार करने वाला नही क्युकी अब लोग इतनी गहरी नींद में जा चुके हैं की बेहोशी के आलम में है…और बेहोशी के इस खुमार निकालने की कोशिश भी नही करना चाहते…अपने आप में अपने घर में चन्द सकरी दीवारों में सिमट गए है लोग…समाज से कोई लेना देना नही है अब…सिर्फ वक़्त को दोष देने की आदत पड़ गई है वक़्त बदलने की नही.
मै चाहता हूँ की हर पर्व चाहे वो किसी भी धर्म का हो हर इन्सान को मानना चाहिए और मन को प्रेम के रंगों से रंगते जाना चाहिए तभी तो ज़िन्दगी में नयापन आयेगा…हमारा प्रयास होना चाहिए कि हम रोज़ बदलते रहे, कल जो हमारा व्यवहार था आज उससे और बेहतर हो, जो आदते हमें नीचे की ओर गिराती है वो दूर होती जाए…समाज में एक दुसरे के लिए हमदर्दी प्यार और सहयोग देना चाहिए ताकी समाज उन्नति करे..आने वाली नस्लें सीखें. और हर दिन पर्व बन जाये.इंसानियत का पर्व.

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