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हर शुक्रवार को हिंदी फिल्मो के प्रदर्शित होने का दिन होता है,और एक आम दर्शक (जिसके लिए सिनेमा सबसे बड़ा मनोरंजन का साधन है) की नज़रे टिक जाती है,प्रिंट मिडिया हो या इलेक्ट्रानिक मिडिया पर, नई फिल्म की समीक्षा के लिए….पर ये जो समीक्षक है क्या ये सिनेमा के महा गुरु है?कोई भी समीक्षक बन बैठा है?किसी भी फिल्म के बारे में कुछ भी कह देता है….कितनी अहमियत दी जानी चाहिए उनकी समीक्षा को? ये एक बहुत बड़ा सवाल है,एक ऐसा सवाल जिस पर हर किसी को सोचना चाहिए…क्योकि ये सिर्फ एक फिल्म पर टिका टिप्पड़ी तक ही सिमित रहने वाली बात नही है…क्युकी इस महंगाई के दौर में दर्शक फिल्म देखने के पहले ही ठोक बजा कर देखना चाहता है की वो जहाँ सौ दो सौ रुपये खर्च करने जा रहा है उसके वो पैसे वसूल होंगे या नही? और यही वजह है की आज फिल्मो की समीक्षा की अहमियत बढ़ गई है….
पर ये जो समीक्षक है ये शायद नही जानते की उनका एक रिव्यू का अंजाम क्या होता है…अगर वो किसी फिल्म को बुरा लिख देते हैं तो दर्शक उस फिल्म को देखने से हिचकिचाता है…जब की सच्चाई तो ये है की ये समीक्षक आज समीक्षक ही नही रहे ये आलोचक हो गए हैं….. और आलोचक भी ऐसे आलोचक नहीं जो गुणों और अवगुणों पर बराबर की नज़र रखते हों, बल्कि ऐसे आलोचक जो बस आलोचना करना हीं जानते हैं यानि कि मौका मिला नहीं कि बुराईयों का पुलिंदा लेकर बैठ गए.
मैं मनाता हूँ किसी को भी हक़ है की वो अपनी बात कहे,पर उसके कहने का अंजाम क्या होता है ये उसे एक बार सोचना चाहिए.एक फिल्म के फ्लॉप होने से कितना बड़ा आर्थिक नुकसान होता है इस बात का अंदाज़ा इन फिल्म समीक्षकों को है?एक फिल्म से कितने परिवारों का पेट पलता है ये बात ये समीक्षक जानते है?ये समीक्षक क्या ये जानते है की पायरेसी जैसा जुर्म इनकी समीक्षाओं की वजह से और भी पनप रहा है..क्युकी समीक्षक अगर किसी फिल्म को बेकार और बकवास लिख देते हैं तो लोग वो फिल्म थियेटर में ना देख कर पायरेटेड सी डी या डी वी डी पर देखते है.
ये जो समीक्षक है ये फिल्म इंडस्ट्री से कितने जुड़े हुए है?अगर जुड़े हुए है तो ये खुद फ़िल्में क्यों नही लिखते?खुद एक सीन क्रियेट क्यों नही कर के दिखाते?उंगलिया उठाना और त्रुटी निकलना बड़ा ही आसन होता है, वैसे भी देखा गया है की वही अक्सर समीक्षक बन बैठे है जो फिल्मो में राईटर बनने आये थे या फिर बनने का सपना देख रहे है और उनका सपना अधुरा रह गया,जिसकी खुन्नस वो दूसरी फिल्मों की बैंड बाजा कर कर रहे है..मैंने तो इन दिनों देखा और पढ़ा है की समीक्षक बने ये लोग अब ये भी लिखने और कहने लगे है की फलां फिल्म देखने ही ना जाईये….लोक तंत्र में सब से भ्रष्ट कहे जाने वाले नेता भी अपने लिए जब वोट मांगने जाते है तो वो भो खुल कर नही कहते की फलां को वोट मत दो..वो घुमा फिर कर अपनी बात कहते है, तो फिर समीक्षक को ये कहने का हक़ किसने दिया की वो खुले आम कह देते हैं की फलां फिल्म देखने मत जाओ?और जो समीक्षा कर रहे है वो कितनी निष्पक्ष है?
ऐसे दर्जनों समीक्षक हैं जो गुट के मुताबिक समीक्षा लिखते है,वो जिस गुट से जुड़े होते हैं उस गुट की सारी फिल्मों को बेहतर कहते है…कुछ समीक्षक ऐसे है जो पी आर ओ के पैसो के पैकेट और शराब के पैग के मुताबिक समीक्षा करते है…और आम दर्शक समझाता है की वो सिनेमा गुरु हैं…टीवी चैनल आज कल फिल्मो के मिडिया पार्टनर बन जाते है वो कितनी भी बकवास फिल्म क्यों ना हो उसकी तारीफ करते है,क्या यह सही है?कुछ चैनल में एक्टर नही आते उनको इंटरव्यू नही देते या उनसे कोई खुन्नस होती है तो वो चैनल या न्यूज पेपर उनकी धज्जियाँ उडाता है…ये कहाँ का इंसाफ हुआ ये कैसी निष्पक्षता? इसपे लगाम लगनी चाहिए…सिर्फ सिनेमा से जुड़े लोगो को ही नही बल्कि आम दर्शक को भी इनकी खिलाफत करनी चाहिए जो मति भ्रष्ट करने की कोशिश कर रहे हैं…समीक्षा करने का हक़ उनको है जिन्हें सिनेमा की बारीकियां मालूम हों,जिन्हें सिनेमा क्या है ये मालूम हो…
कहने को तो बहुत कुछ है पर मै अपनी बातें ख़त्म करते हुए सिर्फ इतना कहूँगा फिल्म समीक्षकों से कि आप किसी फिल्म को अपने “पूर्वाग्रह” या फिर “दुराग्रह” के कारण न नकारें. अपनी मानसिकता को नकारात्मक ना बना कर सकारात्मक बनाये और इस देश के लोगो के मनोरंजन के एक मात्र आसान साधन सिनेमा को बढ़ने दें फलने दें..ये एक ऐसी इंड्रस्ट्री है जिसका मनोरंजन कर इस देश के विकास में बहुत बड़ा योगदान देता है..और अगर लगातार फ्लॉप फिल्मो का दौर चलता रहा तो लाखो घरो के चूल्हे भी ना जलेंगे, और पायरेसी जैसा अपराध फलता फूलता रहेगा.
(आप अपनी प्रतिक्रिया ज़रूर दें और अपने दोस्तों को भी ये लेख पढने को कहें,मै आप के सहयोग के लिए आभारी रहूँगा)
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